किसी भी शिक्षण संस्था द्वारा पत्रिका का प्रकाशन उतना ही महत्वपूर्ण कार्य है; जितना कि शिक्षण कार्य। यह भी एक प्रकार की सृजनात्मक शिक्षण प्रक्रिया या विधि है, जिसके द्वारा शिक्षक, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों में मौलिकता का पुनर्बलन होता है। उनमें आत्मचिंतन, कल्पनाशीलता , वैचारिकता तथा भावनात्मकता का विकास होता है। पत्रिका में प्रकाशित उनके 'शोधपरक' या रचनात्मक लेखन के माध्यम से जहाँ एक ओर उनकी विशेषज्ञता के क्षेत्र में पहले से प्राप्त ज्ञान की परिधि का विस्तार होता है। वे कुछ मौलिक योगदान करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ते हैं।
सौभाग्य का। विषय है कि मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा, शिक्षा, धर्म एवं संस्कृति के प्रचारार्थ कानपुर में "1910" में भारत धर्म महामण्डल के प्रतिष्ठापक स्वामी ज्ञानानन्द जी के सुयोग्य शिष्य स्वामी दयानन्द जी के मार्गदर्शन में राय बहादुर विक्रमाजीत सिंह एवं राय देवी प्रसाद पूर्ण के प्रयासों से 'श्री ब्रह्मावर्त सनातन धर्म महामण्डल' की स्थापना हुई, जिसके तत्वावधान में, 1921 में विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म कॉलेज की स्थापना हुई। हर्ष का विषय है कि महाविद्यालय में 1927 से ही निरन्तर वार्षिक पत्रिका का प्रकाशन होता रहा है, जिसे कालान्तर में 'ऋतम्भरा' की अभिधा दी गई। 'ऋतम्भरा' का आशय है-- बुद्धि की वह अवस्था जिसमे वह प्रज्ञा से युक्त हो जाती है।
'नैक' द्वारा दो बार 'ए' ग्रेड प्राप्त इस संस्था ने शिक्षा के क्षेत्र में देश-विदेश में अतुलनीय योगदान किया है। हमे गर्व है कि देश के प्रमुख विद्या-केंद्र ने आज अपनी स्थापना के सार्थक एवं फलदायी सौ वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। इस अवसर पर महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका 'ऋतम्भरा' का शताब्दी स्मारिका के रूप में प्रकाशन हो रहा है। जिसमे अतीत के सौ वर्षों की विकास-यात्रा की एक झलक दिखाने की कोशिश की जा रही है। स्मारिका में सेवानिवृत्त विद्वान प्राध्यापकों तथा विशिष्ट पूर्व छात्रों के रोचक तथा ज्ञानवर्धक संस्मरणों के साथ शीर्षस्थ विद्वानों के आलेख भी प्रकाशित किए जा रहे हैं, जो विश्व पटल पर भारतीय मेधा के प्रतीक हैं। आशा है स्मारिका को आपका स्नेह मिलेगा।
प्रो. राकेश शुक्ल
मुख्य सम्पादक